
NEWS1UP
विशेष संवाददाता
मध्य प्रदेश। बालाघाट की सुबह 19 नवंबर घने जंगलों में गूंजती गोलियों की आवाज़ और ज़मीन पर गिरता एक ऐसा योद्धा, जो हर मिशन में सबसे आगे चलता था। हॉक फोर्स के जांबाज़ निरीक्षक आशीष शर्मा ने नक्सलियों से भिड़ते हुए अपने प्राण देश पर न्योछावर कर दिए। और उसी दिन से पूरे मध्य प्रदेश पुलिस परिवार के दिल को जैसे किसी ने चीर दिया हो। आशीष शर्मा सिर्फ एक नाम नहीं था, वे साहस, त्याग और नेतृत्व की जीवित मिसाल थे।
SP भी संभल न सके! फूट-फूटकर रो पड़े
बालाघाट के अंबेडकर चौक से पुलिस लाइन तक जैसे ही उनकी अंतिम यात्रा आगे बढ़ी, भीड़ सैलाब की तरह उमड़ पड़ी। हर आंख नम थी, हर कदम भारी। अंतिम दर्शन के दौरान पुलिस अधीक्षक आदित्य मिश्रा खुद को रोक नहीं पाए, भीड़ में खड़े-खड़े उनका दिल टूट गया… और अंसू छलक पड़े। जवानों ने उन्हें संभाला, लेकिन वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति की आंख सूखी नहीं रही।
यह दृश्य सिर्फ एक अंतिम यात्रा का हिस्सा नहीं था। ये उस वीर के प्रति पूरे प्रदेश की अंतिम सलामी थी, जिसकी बहादुरी आज भी पुलिस प्रशिक्षण का पाठ है।

वह अफसर, जिसके ऑपरेशन्स ‘मॉडल केस’ के रूप में पढ़ाए जाते हैं
आशीष शर्मा की वीरता किताबों में नहीं, ऑपरेशन्स में दिखाई देती थी। पुलिस अकादमी में प्रशिक्षु अफसरों को जो केस पढ़ाए जाते हैं, उनमें आशीष के ऑपरेशन्स सबसे ऊपर गिने जाते हैं। उनकी रणनीति, उनकी फुर्ती, और उनका नेतृत्व, सब कुछ असाधारण।
दो बार गैलेंट्री अवॉर्ड, सैकड़ों ऑपरेशन्स का अनुभव… और हर मिशन में ऐसी भागीदारी कि वरिष्ठ अधिकारी भी उनकी कार्यशैली की मिसाल देते थे।
साथी DSP संतोष पटेल की आंखें भर आईं
पत्रकारों से बात करते हुए DSP संतोष पटेल की आवाज़ टूट रही थी। उन्होंने बताया:
“आशीष बेहद विनम्र, बेहद ईमानदार और बेमिसाल अफसर था। बड़े अफसरों तक उसकी पहुंच थी, लेकिन कभी घमंड नहीं देखा। हम कई बार साथ ऑपरेशन्स में गए, उसकी शहादत मैं जीवनभर नहीं भूल पाऊंगा।”
संतोष की आंखों में साफ़ दिख रहा था, एक योद्धा खोने का दर्द सिर्फ विभाग का नहीं, व्यक्तिगत था।
रौंदा जंगल का वह ऑपरेशन आज भी किताबों में जिंदा है
फरवरी 2025, रौंदा जंगल में वह ऐतिहासिक ऑपरेशन, जिसमें आशीष की टीम ने चार खतरनाक नक्सलियों को ढेर किया था। इससे पहले भी उनकी टीम ने तीन नक्सलियों का सफाया किया था। यह ऑपरेशन इतना सटीक और प्रभावी था कि अधिकारियों को आज भी उसी जगह ले जाकर समझाया जाता है कि-
“कैसे एक छोटा सा दस्ता रणनीति के दम पर भारी पड़ सकता है।”
सबसे आगे चलता था… लेकिन टीम को हमेशा सुरक्षित घर लाता था
उनके साथियों के मुंह से ये शब्द बार-बार सुनने को मिलते हैं।
कहा जाता है,
“आशीष 3–4 दिन घने जंगलों में बिना खाना-पानी के भी ऑपरेशन पूरा कर देता था… और जब लौटता तो सबसे पहले अपनी टीम की गिनती करता, कोई छूटा तो नहीं?”
नेतृत्व सिर्फ रैंक से नहीं आता, आशीष इसका जिंदा प्रमाण थे।
31 साल 9 महीने की उम्र… और शादी से ठीक पहले शहादत
नरसिंहपुर के बोहानी गांव का बेटासिर्फ कुछ हफ्तों बाद शादी के बंधन में बंधने वाला था। घर में तैयारियां चल रही थीं। लेकिन किस्मत ने कुछ और ही लिखा था। अब गांव में मातम है, हर चेहरा नम है… लोग कहते हैं,
“हमारा आशीष अब सिर्फ एक बेटे के रूप में नहीं बल्कि देश के वीर के रूप में जियेगा।”
20 नवंबर 2025 को उनके गांव में पूरा प्रदेश उन्हें अंतिम विदाई देगा।
एक ऐसी शहादत, जो सिर्फ इतिहास नहीं, प्रेरणा बन जाएगी
आशीष शर्मा ने सिर्फ नक्सलियों से लड़ाई नहीं लड़ी, उन्होंने उस विश्वास को जीत लिया जिसे कर्तव्य कहते हैं। उनकी वीरगाथा अब किताबों में, प्रशिक्षण में, और सबसे ज्यादा उन दिलों में जीवित रहेगी, जो देश को सुरक्षित देखने का सपना लिए वर्दी पहनते हैं।
इंस्पेक्टर आशीष शर्मा को शत-शत नमन।
आप अमर हैं आपका साहस अमर है।